कविता :- एक नाव पर सवार तो नहीं : मगर एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !

रिपोर्ट बृजेश अग्रहरि
रीडर टाइम्स न्यूज़
ऐकला चौलो के मानिंद हो या के भीड़ में एकाकी
टुकड़े टुकड़े इन्सान को दया करो जज मत करो
एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!

मयस्सर है क्या? क्या तुम्हें बताएं हम धूप थी या के छांव शिनाख्त हो ना सकी
साथ दो , जज मत करो ,एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!

आए थे तो कुछ उजरे से थे
उमड़ते बादल कब कालिख बने खबर हो न सकी संवार दो 
जज मत करो , एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!

लम्हों की याद क्या करें गरज चुके . बरस गए . लरज के बारिशें कहीं
कोर से छिटक पड़ीं हो सके तो पोंछ दो
जज मत करो एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!

आज मुद्दतें हुईं मुस्कुराहटें गई कब से किस्सागोई के थमे पड़े थे
सिलसिले क्यूँ वो तुमने सुन लिया जो था बचा पर अनकहा यूँ करो कि भुला दो
जज मत करो एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!

ये मंदिरों की घंटियां जो बज पड़ीं तो कह गयीं तुम्हीं में सका अक्स है, रचाव है, बसाव है
हो फिर तुम्हें तो क्यूँ ? न ये कोई गुमान है दीये की वो लौ बनो
जज मत करो, एक ही तूफां से जूझ रहे हैं हम सभी !!