” कुछ न कहते हुए कुछ कहना है “

final

इब्ने  आदम  तेरी  हरकत से मुझे  डर लग रहा,

तेरे क़दमों की धमक  कैसी भी हो पर लग रहा,

मेरा सर गर्दन पे है  फिर भी  नहीं  सर लग रहा,

धर्म की  आग़ोश  में पलता  हुआ शर लग रहा,

क्यों  नहीं  हो  ढूंढते  खोई  हुई  वह आन बान।

सादगी  में ही सदा इंसानियत की होती शान।

गुम्बदों  मीनार में  है शानो शौकत की झलक,

उस  में  है  इस्लाम  की  पहचान  न  भीनी महक,

हाँ मगर  दिखलाई  देती  पैसों  की  झूठी  छनक,

अए मुसलमां दिल तेरा जाता है क्यों इससे बहेक,

इसको भी अपनाओ  पर  ईमान  को बेहतर करो।

ख़ुद फ़रेबी से निकल लो ख़ुद को न अबतर करो।

यह  शिखर  जो  मंदिरों  के  छूते  रहते हैं फ़लक,

और माथे  पर  शिखर के  जो  चमकते है कलश,

घंटियां  जा कर  बजाने की  रखो दिल में ललक,

पूजा और  अरदास में  लाओ  सदा अपने चमक,

देवता के  पास जा  कर  मन  को न  तीखा करो।

क्या है अच्छा क्या ग़लत है  बात भी सीखा करो।

आदमी हो  आदमीयत की  सिफ़त को पास रख,

बज़्मे इंसानी  सजा  कर  प्यार  को ही साथ रख,

मज़हबों ने जो सिखाया उस से अच्छी आस रख,

हिन्द के वासी  हो तो  पहचान  अपनी ख़ास रख,

तेरे इल्मों फ़न को दुनियां  दौड़ कर अपनायेगी।

प्यार  के  नग़में  तेरे सब  झूम  कर  वह गाएगी।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “