पनघट – पनघट लम्पट घूमैं कइसे बचाऊँ कोरी गगरिया। आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया

पनघट – पनघट   लम्पट   घूमैं  कइसे  बचाऊँ  कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

अपने अंगना मा डर लागे रीत ई कईसन लाई हवइयां,

ऊपर  नीचे  धूआं धूआं  लपट  दिखावे  चरों दिसय्या,

नीक  न  लागै  मेला  ठेला  न  भावै अब  हाट  का  बजरिया।

पनघट – पनघट   लम्पट  घूमैं  कइसे  बचाऊँ  कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

खेत मा पीली सरसों रोवै पीली  चुनरिया काटे तन का,

कोई न हमरा रखवाला है करते टुकड़े सभय हैं मन का,

प्रीत के  बोल भी आ कै घोलैं  कानन  मा  बस जहर लहरिया।

पनघट – पनघट  लम्पट  घूमैं   कइसे  बचाऊँ   कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

बाट बाट में झाड़ी  झंखड़  तलुवा  जख्मी  उलझे पायल,

अंसुवन से ही घाव का धोवैं फिर भी मनवा सागरा घायल,

संकट मा सब कय जीवन है का  हो बिटिया  का हो बहुरिया।

पनघट – पनघट  लम्पट   घूमैं  कइसे  बचाऊँ  कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

का इत ठहरूं का उत  जाऊं  डगर  डगर  मा सांप सपोले,

फन काढ़े सब डसन को बइठे अजगर बजगर मुंह है खोले,

जंतर  मंतर  सबही   भूले  अब  तो   बिछुआ   बनी  दुवरिया।

पनघट – पनघट   लम्पट  घूमैं   कइसे  बचाऊँ  कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

हे दयू आओ हम का बचाओ अब तो बस है तुमरा सहारा,

रिस्ते  नाते  भीड़  लगाये   पर  न  दिखत  है  केहू  हमारा,

बाग बगीचा  खेत को छोड़व  लुटती  इज्जत  बीच बजरिया।

पनघट – पनघट  लम्पट  घूमैं  कइसे   बचाऊँ  कोरी  गगरिया।

आँचल उड़तय जोबन पर गड़ जाती है सब की बैरी नजरिया।

 

RIZVI SIR

मेहदी अब्बास रिज़वी

   ” मेहदी हल्लौरी “