मरने से क्या डरना

moksh

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मृत्यु का विचार आते ही लोग अजीब तरह से सिहर उठते है. उनमे एक तरह कि हताशा और उदासी सी भर जाती है . मृत्यु का नाम ह्रदय पर एक ऐसा धक्का है. जिसका प्रभाव यदि पूरी तरह से जम गया तो छुटकारा बहुत मुश्किल हो जाता है. नित्यप्रति हमारे आस-पास होने वाली तमाम मौते कुछ लोगो को इस तरह हिला कर रख देती है. जिससे वह अवसाद से भर जाते है.यहाँ तक कि मृत्यु का भय उन्हें कायर बना देता है, और उनका खुशनुमा जीवन विरक्तियों से भर जाता है. जबकि मनीषी मौत का भय न जोड़कर जीवन को सबसे बड़े सत्य से जोड़ते है और मृत्यु को हृदयांगम कर लेते है, क्योकि मृत्यु को नजदीक से समझने वाला प्राणी ईश्वर द्वारा दिए गए अमूल्य जीवन अवधि का मूल्य समझता है इसलिए उस समय के एक-एक क्षण का पूर्ण सदुपयोग करता है. जीवन के आनंद का पूरी तरह आत्मसात करता हुआ भलाई को जीवन का प्रथम कर्त्तव्य मानता है.उन्हें इस सत्य का ज्ञान होता है कि न जाने किस क्षण मृत्यु उसे अपनी गोद में उसे उठा सकती है.इसलिए मृत्यु की बेला से पूर्व अपने सभी कार्यो की पूर्णता में मन लगाते हुए कर्तव्य पालन करता है. यह आचरण उसे मृत्यु के भय से दूर आनंद के द्वार तक लाता है, और आनंद में रहना परमात्मा की परिधि में प्रवेश है. इस आनंद का भोग करते हुए उसे लेश मात्र भी मृत्यु का भय नहीं सताता और इसके विपरीत जो मिथ्या विश्वासी मृत्यु से दर-दर कर जीवन को रेंग-रेंग कर व्यतीत करते है. वह कुछ दूर तक भी नहीं चल पाते और मृत्यु आकर उन्हें पकड़ लेती है .जब मृत्यु अटल है ,अनिवार्य है तब उससे क्या डरना ,मृत्यु से न डरने वाला ही उसे वरण कर चिरंजीवी बनता है.