ग़ज़ल : है कोई आँख जहाँ कायनात दिखती है , हसीन रंग में महकी हयात दिखती है

है  कोई  आँख   जहाँ  कायनात  दिखती  है,

हसीन  रंग   में   महकी   हयात   दिखती  है।

नज़र की  बात  नहीं  नज़रिया  है ज़ेरे बहस,

किसी बात  में  किस  तरह  बात  दिखती है।

 

जो  होंठ  खुलते  ही  मोती  बिखेर   देता  है,

उसी  के  लहजे  में सारी  सिफ़ात दिखती है।

अमल  के  साए  में  इंसान  को  वजूद  मिला,

सभी अमल में ही नीयत की  ज़ात दिखती है।

 

गहन  की  गोद  में जब  आफ़ताब  आता  है,

तो  दिन  के  होते  हुए  काली रात  दिखती है।

सितारे   टूट  के   भटके   खभी  फ़ज़ा  में  तो,

ज़हन  के  अंधों  को  आती  बरात  दिखती है।

 

हवा  बदलते  ही  कश्ती का रुख़  बदल जाता,

ये ऐसी शह है कि बस सब को मात दिखती है।

जो  हक़  पे  मरता  है, मरता नहीं शहीद है वह,

शहीदे  हक़  को  ही  मर  कर हयात मिलती है।

 

ये फ़लसफ़ा नहीं ‘मेहदी’ का तजरुबा  सुन लो,

हर  एक  दिन में  छिपी  काली  रात दिखती है।

RIZVI SIR

मेहदी अब्बास रिज़वी 

   ” मेहदी हल्लौरी “