धर्म आधारित शिक्षा में सामयिक बदलाव ; हमेशा बना रहा चर्चा का विषय ,

शिखा गौड़ डेस्क रीडर टाइम्स न्यूज़

भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले देश में धर्म और धर्म आधारित शिक्षा हमेशा चर्चा का विषय बना रहा है। ताजा मामला असम विधानसभा द्वारा पारित असम निरसन विधेयक, 2020 का है, जो असम मदरसा शिक्षा (प्रांतीयकरण) अधिनियम, 1995 और असम मदरसा शिक्षा (कर्मचारियों की सेवा का प्रांतीयकरण और मदरसा शैक्षणिक संस्थानों का पुनर्गठन) अधिनियम, 2018 को निरस्त करना है। इस पारित विधेयक में मदरसों को प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालयों में बदलना प्रस्तावित है। इसमें बिना शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों के वेतन और भत्ते व सेवा शर्तो में कोई बदलाव नहीं किया गया है।

गौरतलब है कि संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं जिसमें अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 30 देश में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के लिए अधिकार देता है। यहां यह प्रश्न उठता है कि अगर असम सरकार द्वारा पारित अधिनियम उपरोक्त प्रावधानों के खिलाफ है, तो राज्य द्वारा मदरसा और अन्य धार्मिक शिक्षण संस्थानों को दिया गया अनुदान राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कैसे उचित ठहराता है।

दरअसल, विगत वर्षो में मदरसों को दी जाने वाली सरकारी मदद को खत्म करने की मांग को कुछ पक्षों द्वारा प्रमुखता से उठाया गया है। कुछ खास पक्षों द्वारा सरकारी मदरसों को खत्म कर उन्हें स्कूल में तब्दील करने को भले ही गलत ठहराया जा रहा हो, लेकिन इस पक्ष की चर्चा वृहत संदर्भो में किए जाने की जरूरत है। एक तर्क यह है कि मदरसा में पढ़ रहे बच्चों को अगर आधुनिक और तकनीकी शिक्षा से जोड़ा जाए तो मुस्लिम बच्चों के लिए यह काफी उपयोगी साबित होगा, क्योंकि गरीब मुस्लिम परिवारों के बच्चों का मदरसा में शिक्षा ग्रहण करने का रुझान अधिक है। ऐसे ही कई विषय हैं जो इस पक्ष को पुख्ता करते हैं कि वर्तमान समय में हमें धार्मिक संकीर्ण विश्लेषण से इतर एक व्यापक पक्ष देखने की जरूरत है।

हाल में प्रकाशित राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार मुसलमानों की शैक्षणिक स्थिति एससी और एसटी से भी निम्न है। प्राथमिक स्तर पर सकल उपस्थिति अनुपात में मुसलमानों की स्थिति अन्य के मुकाबले काफी निम्न है। यही स्थिति कमोबेश मुस्लिम महिलाओं में भी देखी गई है। उपरोक्त पक्ष इस ओर संकेत करते हैं कि मुस्लिम परिवारों में शिक्षा के प्रति अभी भी एक उदासीनता देखी जा रही है, ऐसे में बच्चों में प्राथमिक स्तर पर नामांकन दर काफी कम है और इस पर एक व्यापक रूपरेखा तैयार करने की जरूरत है। मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए वर्ष 2005 में दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में गठित सात सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति ने भी मदरसा में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा व्यवस्था को लागू करने की सिफारिश की थी।

हालांकि इस संदर्भ में यह भी दलील दी जाती है कि सच्चर समिति की रिपोर्ट के अनुसार महज चार प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही मदरसा शिक्षा ग्रहण करते हैं, जबकि जस्टिस सिद्दीकी मदरसा जाने वाले बच्चों के बारे में सच्चर समिति के निष्कर्ष पर विश्वास करने से इन्कार करते हैं, क्योंकि इसके बारे में दिए गए आंकड़े किसी भी सर्वेक्षण से नहीं लिए गए थे। उनका मानना है कि इसमें संख्या बहुत अधिक है और सरकार द्वारा मदरसों में आधुनिक शिक्षा के सुधार के लिए काम करने के लिए आवश्यक कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया गया व केंद्रीय मदरसा बोर्ड के गठन की सिफारिश की गई थी।

विविधता में एकता

भारत की खूबसूरती इसकी विविधता है और यही विविधता हमें हमारे रहन सहन के साथ साथ हमारे कौशल में भी देखने को मिलता है। आज कौशल विकास के लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रम किए जा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समाज से जुड़े लोगों ने आज भी कई परंपरागत कौशल को सहेजे रखा है। बदलते समय के साथ ये कौशल रोजगार के अवसर भी प्रदान कर रहे हैं। मसलन कालीन उद्योग, कांच और लाह की चूड़ी उद्योग, ताला उद्योग जैसे कई क्षेत्र हैं जिनमें अपार संभावनाएं देखी जा रही हैं।