कविता संग्रह में ‘ मन की लय ‘ काव्य प्रेमियों के बीच हुआ प्रशंसित

लेखिका विनीता मिश्रा
रीडर टाइम्स न्यूज़

: – कविता लेखन में जीवनानुभूतियों की सहजता और उसकी अभिव्यक्ति के बारे में बताएँ ?

सर्वप्रथम तो मेरे प्रथम कविता संग्रह ” मन की लय “ के संबंध में मैं सभी पाठक गणों का हृदय से आभार व्यक्त करती हूं। जैसा कि मेरी पुस्तक का शीर्षक है ‘मन की लय ‘ इसी में छुपा है मेरे लिए कविता अर्थात अभिव्यक्ति का उद्देश्य। कविता एक ऐसा माध्यम है मेरे लिए जो अनुभूति से अभिव्यक्ति द्वारा मेरी स्वयं से भेंट करवाता है और इस संसार की अनंत द्वारा निर्धारित लय में मेरी सीमित लय के एकाकार होने का स्वरूप है।

आपकी कविताओं में परंपरा से लगाव के अलावा जीवन के नये भावबोध भी दृष्टिगत होते हैं . इस स्तर पर अपने कविता लेखन के सरोकारों को आप किस रूप में देखती हैं ? जिस प्रकार एक बीज भूमि में दबने के बाद जड़ और शिखर दोनों ओर वृद्धि करता है। मेरे लिए मनुष्य का जीवन भी इसी प्रकार है। यदि हम उसकी जड़ काट देंगे तो उसकी शिखा में कभी वृद्धि नहीं होगी और यदि शिखा काट देंगे तो जड़ों को कभी ऊर्जा प्राप्त नहीं होगी। दोनों का संबंध एक संपूर्णता का संबंध है।

जैसा कि हम सभी जानते और मानते हैं कि सृष्टि में सबसे अपरिवर्तनशील जो है वह है उसका निरंतर परिवर्तनशील रहना। वृक्ष के ऊपरी शिखर पर जब जब एक नवपल्लव का जन्म होता है तब तब नीचे की ओर बढ़ते उसके मूल अधिक गहरे एवं अधिक पुष्ट होते हैं। यह एक सिद्धांत है और मैंने जीवन में इसी सिद्धांत को अपनाया है।संसार में आ रही नवीनता को नकार कर हम अपनी परंपराओं को जीवित नहीं रख सकते इसलिए संसार की गतिशीलता को थामे हुए ही हमें अपनी परंपरा से जुड़े रहना होगा तभी मनुष्य रूपी वृक्ष सृष्टि के लिए कल्याणकारी होगा।

आज के लेखन में आत्मिक प्रेरणा की कमी क्यों दिखायी देती है ? अक्सर कविता पर चिंतन की आड़ में सस्ती बयानबाजी की प्रवृत्ति पैर पसारती दिखायी देती है ? नारी कविता लेखन को भी इसका अपवाद नहीं कहा जा सकता .इस बारे में आपके क्या विचार हैं ? असल में किसी भी समय की कविता उस समय की जीवन शैली एवं उस व्यक्ति विशेष की जीवन शैली पर आश्रित होती है। मेरे लिए कविता मेरे ऊपर आश्रित नहीं बल्कि मैं अपनी कविता के भावों पर आश्रित हूं।

ऐसा नहीं है कि केवल वर्तमान समय में ही कविता में एक सस्तापन आया है बल्कि हर काल में सभी प्रकार की कविताएं रची जाती रही हैं। जिस प्रकार मनुष्य की देह नश्वर है और अधिक समय तक वह संसार में अपनी उपस्थिति नहीं बना कर रख सकती परंतु आत्मा अनश्वर है। अतः दैहिक भावों पर रची गई कविताएं धीरे-धीरे लोप हो गईं और आत्मिक प्रेरणा से उपजी कविताएं आज भी लोगों के मन में बसी हुई हैं।
जहां तक नारी एवं पुरुष रचनाकारों का भेद है मैं इसे नहीं मानती। अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी वैसा ही भेदभाव है जैसा समाज में अन्य क्षेत्रों में व्याप्त है।

: – आप अच्छी कविता की विशिष्टता में किन – किन बातों को रेखांकित करना चाहेंगी ?

जहां तक मेरी कविताओं का सवाल है मैं विज्ञान विषय की छात्रा रही हूं और मुझे छंदों की अधिक जानकारी नहीं है और मेरी कविताएं छंदों के नियम को पूरी तरह नहीं निभा पातीं। यह मेरी दुर्बलता भी और शक्ति भी। दुर्बलता इसलिए क्योंकि बहुत सारे लोग इसी कारण मेरी रचनाओं की आलोचना करते हैं और शक्ति इसलिए क्योंकि छंदों की दुरुहता पूरी करने के लिए मैं भावों के साथ कोई समझौता नहीं करती। इसके अतिरिक्त मेरा मानना है कि जैसे छंद युक्त कविता से पहले छंद मुक्त कविता रची जाती रही हैं तो सृष्टि की गतिशीलता के कारण आज फिर कविता स्वयं को छंदों के बंधन से मुक्त करके स्वच्छंद विचरण करने को लालायित है। जहां तक मेरा अपना प्रश्न है मैं इसे भी युगों से चले आ रहे बंधनों की परिपाटी से मुक्त होने का एक प्रतीक मानती हूं।

: – अपने प्रिय कवियों – कवयित्रियों के बारे में बताएँ ?

अपने जीवन में तो मैंने एक ही कवि पाया है और वह हैं राम भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी।

: – तुलसी और मीरा के काव्य लेखन में अंतर और समानता को स्पष्ट कीजिए ? स्त्री स्वतंत्रता के प्रश्न कितने प्रासंगिक हैं ?

पहले समानता की बात करते हैं तो दोनों ही भक्तिमार्गी कवि हैं और अपने आराध्य के प्रेम में आकंठ डूबे हैं। उनको केंद्र में रखकर ही रचना करते हैं। परन्तु अंतर की जहां तक बात है मीरा का प्रेम स्व तक है वे कृष्ण में संसार भूल गई है और तुलसी का प्रेम सर्व तक पहुंच गया है , वे संसार में राम ही राम देख रहे हैं। मीरा स्वयं को कृष्ण तक पहुंचा रही हैं और तुलसी राम को संसार तक पहुंचा रहे हैं। मीरा ने स्वयं को कृष्ण में खो दिया और तुलसी ने संसार को राम से मिला दिया। स्त्री स्वतंत्रता की बात करना ही उसकी प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। कभी किसी ने पुरुष स्वतंत्रता की बात की है क्या? इस प्रश्न का उत्तर इस बात से ही स्त्री स्वतंत्रता की प्रासंगिकता को स्पष्ट करता है। ये सही है कि स्थिति सुधर रही है। स्त्रियों के शिक्षा के साथ उन्हें समान अधिकार और सम्मान दोनों मिलने आरंभ हो चुके हैं। स्त्री स्वतंत्रता की बात पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उठानी तो पड़ेगी।