ग़ज़ल …..

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गुलों  की  रंगत   बता   रही   है   बहार  आ   कर   गुज़र  गई  है,

चमन  ही  हालत  है ऐसी  ख़स्ता  ख़िज़ा भी आने से डर  गई  है।

कहाँ है  तारीख़  की इबारत  बना  दो अब  उस  को आईना सी ,

दिखा दो  ला  कर  सितमगरों  को  तुम्हारे  चलते  ये  मर  गई है।

हर  इक  क़दम  पर ज़हर  की  लपटें  हर  एक ज़र्रा है खूं में डूबा,

तुम्हारी  नज़रों  में  फिर  भी धरती  महक महक कर संवर गई है।

वो  ठंढी ठंडी  हवा के झोंके  वो  बहते  दरिया  की उजली लहरें,

तलाश   करने  पे  भी  न   मिलती   बताये  कोई  किधर  गई  है।

हसीन  सुबहें  भी  शाम  बन  कर  अंधेरों  में  खोती  जा  रही  है,

दिखाये  जाते  हैं   ख़्वाब फिर भी  वह तीरगी  में निखर  गई  है।

न  जिस्म  बाक़ी  न रूह ज़िंदा  तलाश  किस बात की है तुम को,

अए  इब्ने आदम तुम्हारी हस्ती सिसक सिसक कर बिखर गई है।

कोई  नहीं  हमनवा  है  ‘ मेहदी ‘  कोई   नहीं   हमसफ़र   तुम्हारा,

ग़ुबार  ही  बस  ग़ुबार  बाक़ी   जिधर  जिधर   भी  नज़र  गई  है।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “