ग़ज़ल

final gajal

ज़िन्दगी जब  ज़िन्दगी से  ख़ुद ही घबराने लगे,

अपने   आईने  में  अपना अक्स  डर जाने लगे।

किस तरफ़ देखे मुसाफ़िर आँधियों के दरमियाँ,

जब सितमगर तीर से  ज़ख़्मों को सहलाने लगे।

 

बागबां  ने  ज़ह्र  डाला  क्यारियों  में  झूम  कर,

क्यों  तअज्जुब  हो  रहा  है  फूल  मुरझाने लगे।

हां  सितमगारों  के  हाथों आ गया पूरा निज़ाम,

ढाल  कर  ज़ुल्मों  सितम  के  तीर बरसाने लगे।

 

बुज़दिलों की  बुज़दिली ने पाया है ऐसा शबाब,

मुस्कुरा   कर  बस्तियों  में  आग  लगवाने  लगे।

गहरे गहरे  ज़ख्म  पर  आते  नमक  को डालने,

दर्द ने  फ़रियाद  की  तो  खुल  के मुस्काने लगे।

 

जिन  से  थी  उम्मीद  आएँ  गे  मदद  के वास्ते,

बस  सियासत  के  सबब मुद्दे को बहकाने लगे।

देख कर तसवीरे जानम खौफ़ से लरजां हैं अब,

दूर  हो या  पास  हो  दहशत  में  सब  आने लगे।

 

‘ मेहदी ‘ की आवाज़ है आ जाओ अब मैदान में,

रौंदो उन सांपों को जो  घर में ही  बल खाने लगे।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “