जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने 30 साल बाद – मुहर्रम जुलूस दी इजाजत ,

रिपोर्ट : डेस्क रीडर टाइम्स
34 साल की पाबंदी के बाद, जम्मू-कश्मीर के प्रशासनिक अधिकारियों ने गुरुवार को मुहर्रम के जुलूस को गुरुबाजार से डलगेट तक अपने पारंपरिक मार्ग से गुजरने की इजाजत थी को गुरुबाजार से शुरू हुआ जुलूस मौलाना आजाद रोड से होते हुए डलगेट पर समाप्त हुआ. 8वीं तारीख के इस मुहर्रम जुलूस के लिए यहां रहने वाली शिया आबादी लगातार प्रशासनिक मंजूरी की गुहार लगा रही थी. इस फैसले के बाद स्थानीय शिया लोग सरकार के फैसले से खुश नजर आए. दूसरी ओर श्रीनगर के उपायुक्त खुद कुछ अन्य अधिकारियों के साथ जुलूस में शामिल हुए.

पूरे देश में गया ये संदेश
इस जुलूस में शामिल हुए कई प्रतिभागियों में से एक नासिर अहमद ने कहा, ‘हम एलजी साहब और एडमिनिस्ट्रेशन का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं. जिन्होंने तीन दशक के बाद इस जलूस को निकालने की इजाजत दी. हम सभी रात के 12 बजे से ही मौला हुसैन के जुलूस में शामिल होने पहुंचे और इससे पूरे देश में एक पॉजिटिव संदेश गया है.’

प्रशासन का बयान – ‘गुरुबाज़ार से डलगेट तक जुलूस निकालने का यह फैसला जो लिया गया उसके लिए पुख्ता इंतजाम किए गए थे. यही वजह है कि लोग हज़रत इमाम हुसैन को याद कर रहे हैं.

सरकार के इस निर्णय के बाद पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम किए गए. पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता की. मुहर्रम के जुलूस की व्यवस्था, चुनौतियों, सुरक्षा उपायों और अन्य इंतजामों पर चर्चा की. उन्होंने खुद जुलूस के दौरान सुरक्षा और सुरक्षा उपायों की निगरानी की.

पुलिस विभाग ने संभाली कमान
‘शिया कम्युनिटी लगातार चार साल से मोहर्रम को लेकर ये मांग कर रही थी. इसलिए सरकार ने कल फैसला लेते हुए सभी को थ्री टायर सुरक्षा का भरोसा दिलाया और अभी तक उसमें खरे उतरे हैं. अधिकारियों ने ये भी कहा कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में मुहर्रम के 8 जुलूसों की औपचारिक रूप से निकालने की इजाजत दी थी. इसके लिए ट्रैफिक एडवायजरी भी जारी की गई थी. आपको बताते चलें कि 1990 के दशक में हिंसा के चलते इस रूट से मुहर्रम का जुलूस निकालने पर रोक लगा दी गई थी. इस साल जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने इसे निकालने की अनुमति दी तो शिया समुदाय के लोगों ने प्रशासन का आभार जताया है.

मुहर्रम, इस्लामिक कैलंडर का पहला महीना होता है. सामान्य रूप से सभी मुसलमानों और खासकर शिया मुसलमानों के लिए इसका गहरा धार्मिक महत्व होता है. ऐसे में सार्वजनिक व्यवस्था के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए मातमी कार्यक्रमों और जुलूसों के लिए कई सालों बाद एक सुरक्षित वातावरण प्रदान किया गया.