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ग़ज़ल : इक नये ज़ख्म की सौग़ात लिए आता हूँ, जब भी महबूब की गलियों से गुज़र आता हूँ
Nov 13, 2018
इक नये ज़ख्म की सौग़ात लिए आता हूँ,
जब भी महबूब की गलियों से गुज़र आता हूँ।
कहकशां टूट के आंगन में बिखर जाती है,
उन की तस्वीर के आईने में जब आता हूँ।
भीड़ कैसी भी हो तूफ़ां की तरह शोर भी हो,
ख़ुद को तन्हाई की आग़ोश में ही पाता हूँ।
बन संवर कर ये निकलना तो महज़ धोखा है,
असलियत देख के अब ख़ुद से मैं शर्माता हूँ।
कैसी उम्मीदे वफ़ा और भलाई कैसी,
अपनी औक़ात खुले आम दिखा जाता हूँ।
कोई मजबूरी नहीं अपनी तबीयत के तहत,
सुबह होते ही जो मयख़ाने चला जाता हूँ।
मेरे माज़ी की तरफ़ भोली नज़र अब मत जा,
अपने को देख के बेमौत ही मर जाता हूँ।
कोई ‘ मेहदी ‘ तो मिले क़ाफ़िला सालारी को,
शह्र के सेहरा में मैं रोज़ भटक जाता हूँ।

मेहदी अब्बास रिज़वी
” मेहदी हललौरी “