प्रेम में धोखा खाकर बनें धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता

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हमारे देश में भी बहुत सारी ऐसी जगह हैं जो रहस्यों, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के लिए जानी जाती हैं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में भी कई स्थान ऐसे है जो रहस्यमयी हैं। उज्जैन में ऐसा ही एक स्थान है राजा भर्तृहरि की गुफा। यह गुफा नाथ संप्रदाय के साधुओं का साधना स्थल है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है, जिसके कारण वहां सांस लेने में कठिनाई होती है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। राजा भर्तृहरि के साधना स्थल के सामने ही एक अन्य गुफा भी है। मान्यता है कि इस गुफा से चारों धामों के लिए रास्ता जाता है।

जानिए कौन थे राजा भृर्तहरि

प्राचीन उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से जाना जाता था। उज्जयिनी के परम प्रतापी राजा विक्रमादित्य हुए थे। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ क्योंकि भर्तृहरि विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे।

राजा भर्तृहरि की गुफा

यह है पूरी कहानी 

एक बार राजा भृर्तहरि शिकार करने जंगल में गए। वहां उन्होंने एक हिरन का शिकार किया, तभी वहां से गुरु गोरखनाथ गुजरे। गुरु ने राजा को कहा कि अगर वह किसी को जीवन दान नहीं दे सकते तो मारने का भी उन्हें कोई हक नहीं है। तब राजा भृर्तहरि ने कहा कि यदि आप इस मृत हिरन को पुनः जीवित कर दें तो मैं आपकी शरण में आ जाऊंगा।  भृर्तहरि के ऐसा कहने पर गुरु गोरखनाथ ने अपनी तपस्या के बल पर उस मृत हिरन को पुनर्जीवित कर दिया लेकिन राजा भृर्तहरि का मन अब भी अपनी सबसे सुंदर रानी पिंगला के प्रेम में उलझा हुआ था। गुरु गोरखनाथ राजा के मन की बात जान गए। उन्होंने राजा को एक फल दिया और कहा कि इसे खाने से तुम सदैव जवान बने रहोगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी। राजा भृर्तहरि ने यह फल अपनी सबसे प्रिय रानी पिंगला को दे दिया ताकि वह सदैव सुंदर व जवान रहे।

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया ताकि वेश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।  वेश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। राजा ने वेश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वेश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भर्तृहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर गुरु गोरखनाथ की शरण में आ गए। मान्यता है कि गुरु गोरखनाथ के कहने पर राजा भृर्तहरि ने इसी गुफा में वर्षों तक घोर तपस्या की थी।

कहा जाता है कि राजा भृर्तहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भी भयभीत हो गए। कही वह वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण न कर देंय़ इंद्र ने भृर्तहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृर्तहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। पंजे का यह निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृर्तहरि की कद-काठी कितनी विशाल रही होगी। भृर्तहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भृर्तहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं।