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ग़ज़ल : चारों तरफ़ से आग की आंधी उठी हुई , वीराने ख़ाक हो चुके बस्ती जली हुई
Jan 08, 2019
चारों तरफ़ से आग की आंधी उठी हुई,
वीराने ख़ाक हो चुके बस्ती जली हुई।
अपनी हथेलियों पे लिए अपने सर को आज,
सड़कों पे आहो ख़ौफ़की महफ़िल सजी हुई।
अरमान के दिन रात सजाए थे ख़्वाब जो,
उन ख़्वाबों की ताबीर की सूरत ढली हुई।
बेग़ैरती के दौर की हालत न पूँछिये,
रहबर के घर में शाम्मा हिदायत बुझी हुई।
आये थे मयकदे में सुकूं की तलाश में,
रिंदों में कश्मकश थी बहस थी छिड़ी हुई।
दरिया के पार कैसे कोई जाये गा भला,
लहरों पे ख़ूनो गोश्त की चादर चढ़ी हुई।
तदबीरे आशनाई भी बेसूद हो गई,
हर इक निगाह मेरी नज़र से हटी हुई।
मुद्दत के बाद हाथ में आईना आ गया,
पेशानी ख़ुद के ख़ून में देखी रंगी हुई।
‘ मेहदी ‘ तुमहारी बातें भला क्यों कोई सुने,
हर लफ़्ज़ में है आह की रंगत भरी हुई।

मेहदी अब्बास रिज़वी
” मेहदी हल्लौरी “