ग़ज़ल…….जीना भी कैसा जीना है रुसवाइयों के साथ

ग़ज़ल 

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जीना भी कैसा जीना है रुसवाइयों  के साथ,

हर इक क़दम पे मरता हूँ परछाइयों के साथ।

 

न  जाने  कौन  आ  के  ज़हर  घोल कर गया,

डर डर के सांस लेता हूँ  हमसाइयों  के साथ।

 

क्या ख़ूब सुबहो शाम थी क्या ख़ूब  रात दिन,

ख़ुशबू मचल के आती थी पुरवाइयों के साथ।

 

आपस  के  मेल  जोल  में  ताक़त  अज़ीम है,

मुश्किल भी साथ देती है आसानियों के साथ।

 

उठती रही  ज़मीन  फ़लक  झुक के आ गया,

खिड़की पे चाँद आया जो रानाइयों के  साथ।

 

तैराक    समुन्दर   से   ख़ला   में   चले   गए,

ऊंचाइयां  भी  नाप  लीं  गहराइयों  के  साथ।

 

मेरा   नसीब    साथ   रहा    राहे    इश्क़  में,

पूरी  हयात  कट  गई   घरदारियों  के  साथ।

 

जब  सामने  पड़े  कभी  चेहरा   घुमा  लिया,

हाँ  ख़्वाब  में आते  रहे शहनाइयों  के साथ।

 

‘ मेहदी ‘ का तर्ज़ देख तअज्जुब  न कीजिये,

महफ़िल में आता जाता है तनहाइयों के साथ।

 

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “