वह दिन कितने अच्छे थे कितने निर्मल सच्चे थे

National-Integration (1)

वह दिन कितने अच्छे थे

कितने निर्मल सच्चे थे,

 

थाली थाली अलग थी दिखती

पर मानवता साथ झलकती

सबका सुख अपना सुख होता

दुख में भी अपनापन होता

बिदा गावँ से बेटी होती

सब की आँखें जल बरसाती

खेतों में सब मिल जुल हँसते

खलियानों में साथ थे सोते

गोदी में खुशियाँ गाती थी

ममता बढ़ कर सहलाती थी

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चली हवाएँ जाने कैसी

अब न चाची न हैं मौसी

बहेन बेटियां हुईँ पराई

बीच में पड़ गई गहरी खाई

थाली एक हो गई जब से

दिल की दूरी बढ़ गई तब से

कोई किसी की नहीं है सुनता

बिना कपास कपड़े है बुनता

ख़ून का प्यासा इक दूजे का

रंग बदलता ख़रबूज़े सा

देश बेचारा रोता रहता

जान को अपनी खोता रहता

खाने में सब साथ निभावें

दिल है फिर भी पास न आवे

 

कही किरन थोड़ी है बाक़ी

वही हमारी दौलत थाती

मिल जुल कर हम उसे बचा लें

आओ अपना देश सजा लें

रिश्तों की इक डोर बना लें

समरसता की नदी निकालें

आओ मंगल गीत सुनाने

जीवन को गुलज़ार बनाने

पवित्र प्रेम की गंगा बहाने

पूजा की फिर थाली सजाने

मानवता को आओ जगाने

निर्मलता को आगे बढ़ाने

 

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “