पहचान के रहस्य डीएनए में छिपे रहते हैं

a”अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन के चेहरे में समान दिखते हैं। हेमा मालिनी और ईषा दियोल एक जैसी दिखती हैं या शर्मिला टैगोर और सैफ अली खान की शक्लों में एक जैसी झलक है। आखि‍र इसके पीछे क्या कारण है? क्यों बच्चों के चेहरे उनके मां-बाप से मिलते हैं ? पढि़ए एक महत्वपूर्ण आलेख:

ये तो सब जानते हैं कि बच्चों में हमेशा अपनी मां या अपने पिता जैसी शारीरिक विशेषतायें या लक्षण होते हैं जैसे आंखों का रंग, बालों का रंग, नाक की बनावट या फिर शरीर की बनावट और रंग, वगैरह-वगैरह….। इतना ही नहीं कभी-कभी तो बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी जैसे भी दिखते हैं। इस प्रकार आपके मन में ये सवाल उठते होंगे कि क्यों अक्सर बच्चे अपने माता-पिता जैसे दिखते हैं ? क्यों उनमें अपने माता-पिता के लक्षण होते हैं ?

खैर, आपने इस बारे में सोचा हो या ना सोचा हो पर सालों पहले वैज्ञानिकों ने इस बारे में सोचना शुरू कर दिया था। ये जानने के लिए वैज्ञानिकों को काफी समय लगा। और इस बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए एक नहीं बल्कि अनेक वैज्ञानिकों ने अलग-अलग प्रयोग किये। ऐसा ही एक प्रयोग आज से करीब 150 साल पहले हुआ था। सन् 1865 में ग्रेगर मेंडल  ने आनुवंशि‍कता यानी हेरिडिटी  से प्राप्त लक्षणों के कारणों को जानने की पहल आरंभ की थी।

सन् 1865 में ग्रेगर जॉन मेंडल  ने मटर के पौधे पर अपना प्रयोग किया और आनुवंशि‍कता से प्राप्त लक्षणों के कारणों के बारे में अपने नियम दिये। अपने प्रयोगों द्वारा मेंडल ने पता लगाया कि माता पिता से प्राप्त अलग-अलग कारकों के प्रभावशाली और कमजोर होने के कारण ही संतान में अलग-अलग लक्षण प्रकट होते हैं। मगर वो कौन सा तत्व है जिससे माता-पिता के लक्षण बच्चों में संचारित होते हैं इसकी जानकारी उन्हें नहीं मिली थी।

सन् 1903 में आनुवांशि‍की विज्ञानी वाल्टर ने मेंडल के प्रयोग को आगे बढ़ाते हुए अपने प्रयोगों द्वारा ये स्पष्ट कर दिया कि क्रोमोसोम के कारण ही आनुवंषिक लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचारित होते हैं। इतना ही नहीं ये भी साफ हो गया कि मेंडल द्वारा दिये गये आनुवंशि‍कता के नियमों का आधार भी हमदमे के दो अलग-अलग रूप होते हैं जिसमें एक प्रबल होता है और दूसरा दुर्बल ।

मगर उस समय तक यह स्पष्ट नहीं हुआ था कि जीन , क्रोमोसोम  में स्थित प्रोटीन में होते हैं या न्यूक्लिक एसिड  यानि डीएनए  में। इसी की खोज करने के लिए अलग-अलग वैज्ञानिकों ने अपने अपने प्रयोग करने शुरू कर दिये। कुछ वैज्ञानिकों ने जीवाणु  और विषाणु   के साथ डीएनए को लेकर कई प्रयोग किए। फ्रेडिक ग्रिफ्थि एवं अन्य वैज्ञानिकों के प्रयोग से पता चला कि डीएनए एक न्यूक्लिक एसिड है जिसमें जिसमें आनुवंशि‍क निर्देश समाहित होते हैं। इस प्रकार पता चला कि किसी भी जीवित जीव के विकास के लिए डीएनए जरूरी है। डीएनए कुछ विषाणुओं में भी पाया जाता है।

हमारे शरीर में हो रही जितनी भी रसायनिक प्रक्रियाएं हैं उन सभी की जानकारी डीएनए के पास होती है। हमारे हमारे जीन डीएनए के बने होते हैं जो हमें हमारे माता-पिता से प्राप्त होते हैं। माता पिता के कौन से लक्षण उनके बच्चों में स्थानांतरित होंगे जैसे हमारी आंखों का रंग क्या होगा, हमारे बाल कैसे होंगे, हमारी नाक की बनावट कैसी होगी या हमार शरीर का रंग क्या होगा, वगैरह-वगैरह के बारे में डीएनए हमें बनाता है, जो भी – जैसे भी हैं हम। इतना ही नहीं, किन्हीं दो लोगों का डीएनए एक जैसा नहीं होता। डीएनए द्वारा हमारे या हमारे पूर्वजों के बारे में भी काफी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। ये डीएनए वही है जिससे वैज्ञानिकों ने बंदर और मनुष्य के बीच में खोई हुई कड़ी का पता लगाया था।

हर एक मनुष्य का अपना अलग डीएनए स्वरूप होता है जिस के कारण, विधि न्यायिक अपराधों को आसानी से हल करती है। डीएनए ही आनुवंशि‍कता का कारण है। ग्रिफ्फिस के प्रयोग के आधार पर ये पता चल पाया कि हमारा शरीर एक साथ काम कर रहीं 100 खरब कोशि‍काओं से बना है जिनके केन्द्र में क्रोमोसोम के अंदर डीएनए स्थित होता है और डीएनए ही वह तत्व है जो आनुवंशिक लक्षणों यानि कि आनुवंशिकता का कारण है।

आज हम जानते हैं कि जिस प्रकार ईंटों से दीवार बनती है और दीवारों से मकान उसी प्रकार हमारा शरीर भी कोशिकाओं (Cell) से बना है जिनमें नाभिक , क्रोमोसोम , हिस्टोन , डीएनए और जीन के साथ-साथ प्रोटीन भी होते हैं। हमारे शरीर में लगभग 100 खरब कोशिकाएं होती हैं। ये सभी कोशिकाऐं हमारी त्वचा, हड्डियां, मांसपेशियों, तंत्रिका तंत्र आदि में व्यवस्थित होती हैं। कोशिकाओं के केन्द्र में नाभिक होते है जो कोशिकाओं के कार्यों का नियंत्रण करता है। नाभिक में 23 क्रोमोसोम दो जोड़े में होते हैं। इसका मतलब ये हुआ की नाभिक में कुल 46 क्रोमोसोम होते हैं।

क्रोमोसोम में डीएनए, हिस्टोन नामक प्रोटीन पर लिपटा हुआ होता है जिसके कारण आकार में वो बहुत छोटा दिखता है। जब कोषिका विभाजित होती है तो क्रोमोसोम में स्थित डीएनए भी विभाजित होते हैं और हूबहू अपना प्रतिरूप बनाते हैं। कुछ कोशिकायें, जैसे हमारे बाल और नाखून की कोशिकाऐं मृत यानि मरी होती हैं, लेकिन इनकी जड़ें जीवित होने के कारण ये भी लगातार विभाजित होती रहती हैं। अन्य कोशिकाऐं, जैसे हमारे मस्तिष्क, मांसपेशियां, और हृदय की कोशिकाऐं कई बार विभाजित होने के बाद रूक जाती हैं। अलग-अलग तरह की कोशिकाओं में विभाजन के समय डीएनए अलग-अलग रफ्तार से अपना प्रतिरूप बनाता है।

वैज्ञानिकों की सालों की मेहनत और अनुसंधानों द्वारा ही आज हम ये जान पाये हैं कि डीएनए ही वो तत्व है जिसके कारण बच्चों में अपने माता-पिता के लक्षण प्राप्त होते हैं। और इसीलिए हेमा मालिनी और ईषा दियोल की आंखें एक जैसी दिखती हैं, मल्लिका साराभाई और विक्रम साराभाई की शक्लों में एक जैसी झलक है, और अमिताभ और अभिषेक बच्चन एक जैसे दिखते हैं। इस प्रकार डीएनए फिंगर प्रिटिंग  का जन्म हुआ।

चोर की दाड़ी में तिनका अब ये कहावत भी साइन्टीफिक हो ये जरूरी नहीं, लेकिन अगर चोर की दाड़ी का तिनका नहीं एक भी बाल मिल जाए ना तो पुलिस उसे पकड़ लेती है कैसे? डीएनए फिन्गर प्रिटिंग नाम तो सुना होगा है ना, कमाल की साइन्स। डीएनए फिन्गर प्रिटिंग की बहुत बात चलती है। असल में डीएनए फिंगर प्रिटिंग में फिंगर प्रिटिंग में फिंगर विंगर का कोई हाथ नहीं होता? डीएनए तो जेनेटिक मेटेरियल है। और हमारी कोशिकाओं में वही डीएनए होता है हर एक की कोशिका में और हर एक की कोशिका में अलग-अलग डीएनए होता है तो अगर हम पहचानना चाहें कि कोई किसी का बेटा है कि नहीं तो फिर हमें यह देखना होगा कि उनके पिता का कोई डीएनए का निशान इसमें है कि नहीं डीएनए में और उनकी माता का भी निशान है कि नहीं।

आजकल डीएनए फिंगर प्रिटिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए किसी व्यक्ति की पहचान सुनिश्चत की जाती है। इसके लिए संबंधित व्यक्ति के बाल, लार या खून से डीएनए का नमूना लिया जाता है। डीएनए यानि डीओक्सीराइड नेक्यूलिक एसिड (Deoxyribonucleic acid) एक सीड़ीनुमा रचना है जो हर व्यक्ति की कोशिका के न्यूक्लियस में होती है। डीएनए के दोनों सिरों को जो चीज आपस में जोड़े रखती है उसे बैसबेयर कहते है। वैसे तो डीएनए में कई मिलियन बैस बेयर्स होते है। जिनके आधार पर व्यक्ति की पहचान की जाती है। लेकिन इसमें काफी समय लगता है। इसलिए वैज्ञानिक डीएनए के कुछ ऐसे चुनिन्दा सिक्वेन्स का उपयोग करते है जो माता-पिता के अलावा हर एक व्यक्ति में निश्चत तौर से अलग-अलग होता है।

डीएनए फिंगर प्रिटिंग की प्रक्रिया में सबसे पहले डीएनए को शरीर की कोशिका या ऊतकों से निकाला जाता है। इसके बाद एन्जाइमस की मदद से डीएनए को अलग-अलग साइज़ के कई टुकड़ों में काटा जाता है। अब इन टुकड़ों को एक खास विथ से उनके साइज़ के अनुसार से छांट लिया जाता है। फिर डीएनए के इन टुकड़ों के डिस्ट्रिबियूशन को एक नाईलॉन शीट पर ट्रांसफर कर दिया जाता है। बाद में इस नाएलॉन शीट, रेडियो एक्टिव या कलर प्रूवड एड कर देते हैं। इससे शीट पर एक पैटर्न उभरता है इसी को हम डीएनए फ्रिन्गर प्रिटिंग कहते हैं। ये देखने में किसी खरीदे गए सामान के टैग पर छपे बारकोड की तरह दिखता है।

इसी तरह दो डीएनए फिंगर प्रिटिंग में पाई जाने वाली समानता या असमानता के आधार पर व्यक्ति की पहचान सुनिश्चत की जाती है। फिर चाहे वो पेरिटी का मामला हो या फिर क्राइम का। तो इस तरह से क्राइम वगैरह में पता करने के लिए बहुत जरूरत होती है और इस्तेमाल किया जाने लगा है। हैरानी की बात है 50 साल पहले हमें पता ही नहीं था कि डीएनए क्या बला होती है। 50- 55 साल पहले यह इतनी नई-नई चीज है लेकिन आज यह बखूबी इस्तेमाल होने लगी है।

वैसे हम आज जितनी सहजता से डीएनए जैसे शब्द का बातचीत में अक्सर प्रयोग कर लेते हैं, सालों पहले ये सिर्फ मानवीय सोच से उपजा एक प्रश्न चिन्ह था, जिसे हमारी जिज्ञासा ने आनुवंशिक विज्ञान की कई अनबूझ पहेलियों को सुलझाने वाला उत्तर बना दिया। और आज हम रिश्तों की पहचान के लिए डीएनए का प्रयोग कर रहे हैं। भविष्य में डीएनए के द्वारा अनेक रोगों का इजाल संभव हो सकेगा। आने वाले समय में रोगों के लिए जिम्मेदार डीएनए में संशोधन करके बीमारियों को फैलने से बचाया जा सकेगा। और ऐसी खोजों का आरंभ हो चुका है।

रसायन विज्ञान के क्षेत्र में इस वर्श दिए जाने वाला नोबल पुरस्कार डीएनए की मरम्मत संबंधी अध्ययन कार्यों के लिए दिया गया है। रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार जिन तीन वैज्ञानिकों टॉमस लिंडाल (Tomas Lindahl), पॉल मॉडरिश (Paul L. Modrich) और अजीज सैंकर (Aziz Sancar) को दिया जाएगा। उन्होंने डीएनए की मरम्मत पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है। डीएनए मरम्मत (DNA Repair) ऐसी प्रक्रियाओं का संग्रह है जिसमें कोशिका की पहचान करके क्षतिग्रस्त हो चुके डीएनए का उपचार किया जाता है।

इंसानों में मानवीय गतिविधियों एवं पराबैंगनी विकिरणों द्वारा और डीएनए क्षतिग्रस्त हो सकता है। डीएनए की मरम्मत कोशिका की उम्र, कोशिका के प्रकार, और कोशिका के बाहर के वातावरण जैसे अनेक कारकों पर निर्भर करती है। भविष्य में डीएनए मरम्मत द्वारा अनेक आनुवांशिक बीमारियों के इलाज की भी संभावना है। यही कारण है कि नोबल पुरस्कार के लिए इस क्षेत्र में हुए कार्य को महत्वपूर्ण माना है।

रॉयल स्वीडिश अकेडमी ऑफ साइंसेज़ का कहना है कि इन वैज्ञानिकों के अध्ययन ने इस बात को समझने में मदद की है कि कैंसर जैसी परिस्थितियों में स्थिति किस तरह बिगड़ सकती है। और इन वैज्ञानिकों ने बताया कि कोशिकाएं किस तरह क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत करती हैं। टॉमस लिंडाल इस समय ब्रिटेन के फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट  में कार्यरत हैं। पॉल मॉडरिश एवं अजीज सैंकर संयुक्त राज्य अमेरिका के विष्वविद्यालयों में कार्यरत है। विज्ञान जगत में दिए जाने वाले इस सबसे बड़े पुरस्कार के तहत मिलने वाली 80 लाख स्वीडिश क्रोनर की राशि को तीनों विजेताओं में बराबर-बराबर बांटा जाएगा।