इस स्याही का यूज कर लोग बने IAS-IPS से लेकर बिजनेसमैन बने ,

डेस्क रीडर टाइम्स न्यूज़
आपने भी उस दौर में पढ़ाई की होगी, जब स्‍कूल जाने से पहले आप पेन की स्‍याही में इंक भरा करते थे. जी, हां हम बात कर रहे हैं फाउंटेन पेन्स के जमाने का. उस समय स्‍याही भरते भरते हाथ की अंगुलियों में उसके निशान बनना बहुत ही आम होता था. उस जमाने में एक स्‍याही कंपनी थी. जिसका नाम चेलपार्क था, ये एक प्राइवेट मैन्युफैक्चरर्स कंपनी थी. 90 के दशक में इस कंपनी का व्‍यापार बहुत फला फूला, लेकिन आज के दौर में यह कंपनी अतीत का हिस्‍सा बन रही है. जानते हैं इस कंपनी की शुरुआत कैसे हुई थी और कैसे इस इंक का ब्रांडनेम चेलपार्क पड़ा.

क्वालिटी में थी दमदार!
चेलपार्क की स्याही उम्दा क्वालिटी में आती थी. इसी वजह से मार्केट में वह बहुत पॉपुलर हो चुकी थी और इसकी सफलता का राज भी यही था. फाउंटेन पेन्स की निब भी बहुत दमदार आती थी. इस स्‍याही को नॉन कॉरोसिव, एंटी क्लॉगिंग कहा जाता था, इस वजह से इसे प्रीमियम इंक पेन्स के लिए बेहतर माना जाता था. चेलपार्क इंक का इस्‍तेमाल स्कूल के बच्चों से लेकर बड़े लोग करते थे. एलीट क्लास के लोगों के पास भी यही इंक होती थी. इन्‍होंने प्रिंट या टीवी एडवर्टाइजिंग पर ज्यादा खर्च नहीं किया. इसकी बजाय इन्‍होंने स्कूल में निबंध प्रतियोगिता और टीचर्स को डेमो देना जैसी एक्टिविटीज की.

बन गया अतीत-
फाउंटेन पेन्स का इस्तेमाल आज अतीत की बात हो चुकी है. इसके अलावा ब्रिल, कैमलिन और सुलेखा स्‍याही भी आज मार्केट में देखने को नहीं मिलते हैं. वक्त गुजरता गया और उनकी जगह बॉलपॉइंट पेन्स ने ले ली और फिर जेल पेन्स मार्केट में आने लगे. इसके बाद तो फाउंटेन पेन्स घरों और बाजार से गायब हो गए. डिमांड नहीं होने की वजह से फाउंटेन पेन्स की इंक की जरूरत भी खत्म हो गई. ये अतीत का हिस्‍सा जरूर बन चुके हैं, लेकिन इनकी बिक्री स्पष्ट और पूरी तरह से कब बंद हुई है. इस बारे में अभी तक कोई डेटा नहीं है.