शरीयत के नाम पर मनमानी का खेल

रिपोर्ट : मेहदी अब्बास रिज़वी , रीडर टाइम्स IMG-20180720-WA0124

निदा ख़ान, भारत की एक बेटी और बरेलवी सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े घराने की बहू को बरेली के मुफ़्ती ख़ुर्शीद आलम ने एक फ़तवे से इस्लाम से बाहर कर दिया। अल्लाह का फ़रमान है मुसलमान आपस में भाई भाई है मगर मुफ़्ती साहब इस्लाम का सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं। साथ ही केंद्रीय मंत्री श्री मुख़्तार अब्बास नक़वी की छोटी बहन फ़रहत नक़वी को भी दायरे इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया। सवाल उठता है कि दोनों औरतों का गुनाह क्या है ? क्यों यह मुसलमान नहीं रहीं ? इन्होंने ऐसा क्या क्या कि इस्लाम की नज़र में ऐसी गुनाहगार हो गईं कि अब यह मुसलमान भी नहीं रहीं ? निदा ख़ान की शादी आला हज़रत अहमद रज़ा खां साहब ( जो सुन्नी बरेलवी मसलक के प्रवर्तक थे ) की ख़ानदान के एक फ़र्द शीरान के साथ साल 2015 में हुई थी, घरेलू प्रताड़ना से तंग आ कर उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया तो तूफ़ान बरपा हो गया। अदालत में शीरान ने तलाक़ नामा दिखा कर अपना पल्ला झाड़ लिया कि वह मेरी बीवी ही नहीं हैं। चलो अगर यह बात मान भी ली जाये तो तलाक़ के पहले तो थीं, मगर सवाल यह उठता है कि किस कारण से तलाक़ दिया, निदा ने कौन सा ऐसा पाप किया था कि जिसके लिए तलाक़ दिया गया, क्या इस बड़े ख़ानदान का फ़र्द होकर इतना भी नहीं जानता कि तलाक़ अल्लाह को पसंद नहीं है ? और बिना कारण बताए यह सही नहीं है।

मुल्ला मुफ़्ती हर बात में क़ुरआन की आयत और हदीस का हवाला बहुत आसानी से दे देते हैं पर क्या उन्हें मालूम नहीं कि बहुत सी आयाते क़ुरआनी मन्सूख़ ( रद्द ) भी कर के अल्लाह ने उसकी जगह दूसरा हुक्म दिया है, हदीसों में तमाम ऐसी हदीस भी है जो मौज़ू ( गढ़ी ) भी हैं जिसे मुहद्दिसीन ( हदीस के जानकार ओलमा ) ने ख़ारिज कर दिया है। एक साथ 3 बार तलाक़ न क़ुरआन से साबित है और न रसूल की हदीस से। इसी लिए मुस्लिम पर्सनल ला में इसे तलाके बिद्दत कहा गया है। बिदअत कहते हैं उस अमल को जो दीन और शरीयत के ख़िलाफ़ होते हुए किसी ने रायज कर दी हो जो सरासर इस्लाम के ख़िलाफ़ हो। इसे हम मनमानी तो कह सकते हैं शरीयते मोहम्मदी हरगिज़ नहीं मान सकते।निदा ख़ाँ को अगर तलाक़ दिया गया तो वह महर, अपना सामान और ज़ेवर कपड़ा या जो कुछ उसे तोहफ़े में मिला उस पर उसका हक़ है और उसे मिलना चाहिए । मगर वह भी अभी नहीं दिया गया । क्या यह ग़ैर इस्लामी अमल नहीं है ? क्या मुफ़्ती साहब इसपर फ़तवा नहीं दें गे। अब जब मामला कोर्ट में गया तो अन्य पीड़ित औरतें भी साथ आ गईं, फ़रहत नक़वी एक वकील हैं और औरतों के हुक़ूक़ के लिये लड़ती हैं तो वह भी मुल्लाओं के निशाने पर आ गईं।

ध्यान रहे फ़रहत नक़वी शिया मुसलमान हैं  और सुन्नी मुसलमानों ( जो शिया नहीं हैं ) ने हमेशा से शियों को ग़ैर इस्लामी क़रार दे रखा है। तो बरेलवियों का फ़तवा उनपर असर अंदाज़ नहीं होता। शिया इन अध्कचरे मुल्ला को घास भी नहीं डालते। मगर निदा ख़ान सुन्नी ही हैं और बड़े ख़ानदान की बहू हैं। मगर उन्हें भी निकाल बाहर किया। अजीब बात है कि खुला हुआ मुनाफ़िक़ ( जिसे रसूल ने इस्लाम से बाहर करने का एलान किया ) मरवान बिन हकम को आज तक मुसलमान ही नहीं सहाबी समझते हैं। मगर अपने हक़ की बात उठाने वाली एक औरत को इस्लाम से ख़ारिज करते हैं। उससे ताल्लुक़ात ख़त्म करने, बीमारी में देखने के लिए, मर जाने पर नमाज़ जनाज़ा पढ़ने और  कब्रस्तान में दफ़न करने से मना करते हैं।इस्लाम एक निज़ामे हयात है । इसे जो अपना कर ज़िन्दगी गुज़ारेगा। वह अल्लाह की नज़र में मुसलमान होगा , ऐसा इस्लाम बताता है। मगर आज कल के मुल्ला अपने अधकचरे ज्ञान को अल्लाह से भी ऊपर समझते हैं। दर असल मुल्लाओं को अपनी दूकान बंद होने का डर ऐसा समा गया है कि वह ऐसे उलटे काम करके एक तरफ़ मुस्लिम औरतों पर ज़ुल्म ढा रहे हैं दूसरी तरफ़ इसलाम को भी बदनाम कर रहे है।