आधी आबादी का वजूद —- एक पुरानी नज़्म
                                Jan 31, 2019
                                                                
                               
                               
                                मेरा वजूद क्या है मुझे ख़ुद पता नहीं,
जिस में दिखाई दूं मैं कोई आईना नहीं,
जो कुछ सहा है में ने किसी ने सहा नहीं,
हर इक जफ़ा को कहते हैं कोई जफ़ा नहीं,
सारी जफ़ा को अब तो कहा जाता है वफ़ा।
दुनियां की हर निगाह है मुझ से ख़फ़ा ख़फ़ा।
 
मैं आ न पाऊं दुनियां में ऐसी हैं काविशें,
 ख़्वाबों में भी न आ सकूं हैं सब की कोशिशें,
 मेरा नसीब बन गया क़ातिल की साज़िशें,
 गर आ गई तो हर तरफ़ मातम की बारिशें,
 मैं कब थी शामिल हाल दुआ और सुजूद में।
 इक बोझ बन के रह गई अपने वजूद में।
 
मैं हूँ कली, मैं ख़ुशबू हूँ, मैं ही हूँ रौशनी,
वाबस्ता मेरी ज़ात से दुनियां में ज़िन्दगी,
मुझ से ही सीखा बंदों ने अंदाज़े बन्दगी,
फिर भी हमारा नाम है धरती की गन्दगी,
इस गन्दगी से दुनियां में फ़सले बहार है।
यह न हो तो गुलिस्तां फ़क़त रेगज़ार है।
 
बेटी हूँ बहेन बीवी हूँ और माँ की हूँ सूरत,
 मुझ से है दो जहान की महकी हुई सीरत,
 सच है कि हसरतों में हूँ अनचाही सी हसरत,
 हर इक क़दम पे मेरे जहां को हुई हैरत,
 हर शक्ल के इनआम में कांटो का ताज है।
 इस दिल की धड़कनों पे भी ग़ैरों का राज है।
 
मेरा बदन अलग है मगर हूँ तो मैं इंसान,
मुझ में भी ख़्वाहिशें हैं मेरी ज़ात के अरमान,
सब कहते फिरते रहते हैं यह मेरी आन बान,
फिर क्यों लटक रही है सलीबों पे मेरी जान,
महफूज़ अब न घर में, न बाहर सुकून है।
जायज़ ज़माने के लिए बस मेरा ख़ून है।
 
खिड़की पे भी दो पल के लिए आ नहीं सकती,
 सड़कों पे अपने मन से कभी जा नहीं सकती,
 अरमान तमन्नाओं को दिखला नहीं सकती,
 मैं भी हूँ कुछ, हुआ करूं, बतला नहीं सकती,
 मेरा वजूद बन गया महकूम ज़िन्दगी।
 मर मर के जिए जाओ करो सब की बन्दगी।
 
ख़ुद को मैं ढूंढने को भटकती हूँ सुबहो शाम,
दिन में कहीं न चैन है न रात में आराम,
हां शायरों की शायरी में आला है मुक़ाम,
पर मेरी ज़िम्मेदारी में है काम काम काम,
हर गाम पे दहशत भरा पहरा बिठा दिया।
करवट ज़रा सी ली तो चिता पर लिटा दिया।
 
देवी हूँ, लक्ष्मी हूँ, ये हर इक ज़बां पे है,
 छाई हमारे फूलों की ख़ुशबू जहां पे है,
 फिर भी मेरा वजूद बताओ कहाँ पे है,
 क्या तज़किरा हमारा यहां पर वहाँ पे है,
 सन्नाटे में भटकती हूँ अपनी तलाश में।
 फिर भी नहीं मैं मिलती हूँ अपनी ही लाश में।
 
मेरा वजूद मुझ को चिढ़ाता है बार बार,
हां सच है जिए जाते हैं मर मर हज़ार बार,
आईना भी दिखाता नहीं है मेरा सिंगार,
आंसू छिपा के सब को दिखाऊँ मैं कैसे प्यार,
मैं हूँ भी और नहीं भी हक़ीक़त यही मेरी।
बेजान खिलौने सी है क़ुदरत यही मेरी।

मेहदी अब्बास रिज़वी
 ” मेहदी हल्लौरी “