Home  क्राइम  कैसे मांगें भीख … इसके लिए भिखारियों की टोलियों को दिया जाता है ; विशेष प्रशिक्षण , 
                               कैसे मांगें भीख … इसके लिए भिखारियों की टोलियों को दिया जाता है ; विशेष प्रशिक्षण ,
                                Feb 10, 2021
                                                                
                               
                               
                                
डेस्क रीडर टाइम्स न्यूज़
सभी लोगो ने राह चलते भिखारियों को तो जरूर देखा होगा। बात शुरू करते ही रोते हुए । ऐसी बातें कहना जो आपके दिल को छू जाए। ऐसे कपड़े पहनना, ऐसे चलना कि कहीं से आपको उन पर कतई संदेह न हो। आपने उनकी बातें सुन पैसे या खाने को भी दिया होगा। यादों को खंगालते ही ऐसे न जाने कितने चित्र आपके जेहन में उभर आएंगे। अब अगर यह कहें कि जो कुछ आपके जेहन में उभरा वह आपकी नजरों का धोखा था….? जी हां, भिखारियों की दुनिया पूरी तरह से बदल गई है। इसके लिए उन्हें कॉरपोरेट स्टाइल में प्रशिक्षण दिया जाता है।
इस प्रशिक्षण में पर्सनेलिटी डवलपमेंट जैसी पूरी प्रक्रिया अपनाई जाती है। मसलन-क्या पहनें, कैसे बोलें, कैसे चलें…। चौंक गए न? चलिए फिर यह भी जान लीजिए भिखारियों की हर बस्ती में ऐसी पर्सनेलिटी ग्रूमिंग की क्लास लगती है। इस क्लास से टिप्स सीखने के बाद ही बैच बाजार में आता है। चलने-फिरने में असमर्थ…रोगी सा दिखने वाला… ऐसे दृश्य देखकर आपका दिल कई बार धक्क किया होगा। हाथ से पैसे बढ़ाते हुए मुंह से ये भी निकला होगा-ऊपरवाले रहम कर। पर, भिखारियों की दुनिया की हकीकत ये है कि दिव्यांग दिखने वाले ऐसे 70 फीसदी से ज्यादा एकदम सही सलामत होते हैं। वे अपने गिरोह के बेहद अनुभवी भिखारी से खास ट्रेनिंग पाए होते हैं।ये प्रशिक्षण कैसे होता है, इस सवाल को लेकर हम दुबग्गा पहुंचे। शरीर से हट्टा-कट्टा मकरंद साधु वेश में भीख मांग रहा था। जैसे ही हमने कहा भीख मांगते शर्म नहीं आती उसने तपाक से कहा फिर और क्या करें? काम करोगे?…ये सवाल सुनते ही वह बोल पड़ा-हमारी तो पूरी जिंदगी ऐसे ही कट गई…अब क्या करेंगे। बच्चों की तो शर्म करो…ये वाक्य सुनते ही वह कुछ ढीला पड़ा। बोल पड़ा-साहब क्या करें? फिर हमें हिकारत भरी नजरों से देखते हुए बोल पड़ा-बाबूजी आसान नहीं भीख मांगना।
ऐसे किसी से मांगों तो कोई देगा…। नहीं…ना। बच्चे अच्छा कमा लेते हैं। पर, बच्चे बड़ों को पैसा देने पर मजबूर कर दें, इसके लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है। बड़ा कठिन होता है ये सब। कुछ बच्चे काम जल्दी समझ जाते हैं। पर, एक महीना तो लग ही जाता है उन्हें सब कुछ सिखाने में। सुबह जल्दी उठना है, बाल बिखरा और गंदा रखना है ये सब सिखाया जाता है। बच्चे जिद करते हैं। पर, धीरे-धीरे सब सीख जाते हैं। बाबूजी, भूख लगी है… भैया कुछ पैसा दे दो … जैसी लाइनें रटाई जाती हैं। फिर ऐसा बोलते समय वह एकदम दीन-हीन नजर आए उसकी ट्रेनिंग दी जाती है।
: – लाचार दिखें…इसके लिए नशा दिया जाता है
दुबग्गा से निकल हम हनुमान सेतु की ओर चल पड़े। मन में तमाम तस्वीरें उमड़-घुमड़ रही थीं। एक शब्द जो सबसे ज्यादा परेशान कर रहा था, वह है ‘लाचारी’। इस शब्द का बदलता अर्थ, खोता अर्थ…। इसी उधेड़बुन के साथ हम हनुमान सेतु जा पहुंचे। यहां मंदिर के दाहिनी तरफ पार्किंग में हमें भगत मिला। नशे में धुत। वह मांगने के लिए हाथ बढ़ाता है पर जुबान साथ नहीं देती। लड़खड़ाती है। हमने हिकारत से कहा-शर्म नहीं आती, भीख मांगकर शराब पीते हो। पर, हमें उससे कुछ जानना था। इसलिए हमदर्दी के बोल न चाहते हुए भी बोलने पड़े। शराब के नशे का असर था या हमारे शब्दों के तीर का… वह बोला तो बेसाख्ता बोलते ही गया। साहब, क्या करें आदत छूटती नहीं। हमारे यहां बस्ती में तो सभी नशा करते हैं। सभी…? हां, सभी। औरतें, बच्चे, बूढ़े सब…। लाचार दिखने के लिए ये सब जरूरी है। इसलिए सबको सिखाया जाता है। कहां से लाते हो? साहब, बस्ती में ही कच्ची शराब मिल जाती है। जो कुछ काम नहीं कर पाते वे शराब ही बनाते हैं। कब से पी रहे हो? साहब ये तो याद नहीं…कोई बीस बरस तो हो ही गए होंगे।
: – महिलाओं और दिव्यांगों को खास प्रशिक्षण
बच्चों को लेकर भीख मांगती महिलाएं अक्सर दिखती हैं। क्या ये बच्चे उनके खुद के होते हैं, या फिर कुछ और…। इस सवाल का जवाब जानना बेहद कठिन है। पर, भगत के पास लाठी लेकर खड़ी महिला सावित्री बोल पड़ी। साहब, का करें हमार सबका यही धंधा है। पहिले हमहूं बच्चा लइके भीख मांगत रहे…अब इहां पंगत लगवाइत हन…। बच्चा लइके…? आपन…? सवाल जिस तेजी से उछले उसे संभलने का मौका नहीं मिला और बोल पड़ी – नाहीं। तब किसका? अरे, कहूं भी सड़क पे बच्चा मिलि जात है तउ ओका हम सब पालित हन। ओही के लइके भीख मांगत हन। ट्राईसाइकिल पर बैठकर भीख मांगने वाले सतीश ने बताया कि दिव्यांग बनकर अच्छी भीख मिल जाती है। मजबूरी में ऐसा करता हूं।
: – हर दिन कि लिए अलग ड्रेस कोड
लंगड़ बाबा सोमवार को मनकामेश्वर धाम, मंगलवार को हनुमानसेतु, गुरुवार को खम्मन पीर बाबा की मजार तो शनिवार को कपूरथला के शनि मंदिर के सामने बैठते हैं। मंगलवार को वह गेरुआ रंग का तो शनिवार को काला, गुरुवार को हरे कपड़े ही पहनते हैं। अलग-अलग दिन अलग-अलग रंग के कपड़े का क्या असर होता है, इस सवाल पर वह कहते हैं धार्मिक स्थलों के आसपास अगर अच्छे कपड़े और वहां के हिसाब के रंग के कपड़े पहने तो अच्छा पैसा मिलता है। बिना मांगे भी मिल जाता है। नहीं तो लोग भिखारी समझकर भगा देते हैं।
गूंगा-बहरा बनकर बिता दी जिंदगी